Vedshala

वेधशाला  परिचय

वेधशाला परिचय

भारतीय ज्योषिशास्त्रा की सबसे बड़ी विशेषता यह है, कि यह प्रत्यक्ष शास्त्रा है। इस शास्त्रा है। इस शास्त्रा में प्रत्यक्षता का अर्थ है- ‘‘गणित के द्वारा आनीत स्पष्ट-ग्रह का वेध के द्वारा ज्यों का त्यों दिखलाई देना।’’ इसलिए सिद्धान्त-ग्रन्थों में प्रतिपादित ग्रहों की गति, स्थिति, उदय, अस्त, मार्गत्व, वक्रत्व, ग्रहण एवं श्रृघ्गोन्नति आदि के गणितीय सिद्धान्तो को प्रत्यक्ष रूप देने में हमारे मनीषी आचार्यों ने सुदूरतन प्राचीनकाल से वेध् की प्रक्रिया का आश्रय लिया है।

वराहमिहिर के पूर्ववर्ती पाँच सिद्धान्तो में तथा परवर्ती लल्ल, श्रीपति, भास्कराचार्य एवं कमलाकरभट्ट जैसे सभी विद्वानों के सिद्धान्त-ग्रन्थों में त्रिप्रश्नाध्किर के नाम से एक अध्याय नियमतः लगाया गया है, जिसमें हम शुघ्कु आदि यन्त्रों की सहायता से दिग्, देश एवं काल का ज्ञान कर सकते हैं।

सिद्धान्त -ग्रन्थों में जिन यन्त्रों का विधन किया गया है, उन यन्त्रों के द्वारा ग्रहों को देखने की प्रक्रिया ‘वेध’ कहलाती है। और जहाँ इस प्राकर के यन्त्रों को एक साथ रखकर ग्रहों की गति-स्थिति आदि का सतत परीक्षण किया जाता है, उसे ‘वेध्शाला’ कहते हैं। भारतवर्ष में सर्वप्रथम महाराजा मिर्जा सवाई जयसिंह ने जयपुर, दिल्ली, मथुरा, उज्जैन एवं काशी में इस प्रकार की वेध्शालायें बनवाईं थी। दिल्ली का प्रसिद्ध जंतर-मन्तर’ उनकी बनावाई हुई वेध्शालाओं में प्रमुख है। इन सभी वेध्शालाओं में उस समय ज्योतिष के विद्वान् अपनी शिष्यमण्डली सहित वेध्-प्रक्रिया द्वारा ग्रह-गणित के सिद्धान्तो पर शोध्कार्य करते थे। ये सभी वेध्शालायें पाषाणखण्डों से बनाई गईं थी, जिनमें कालक्रमेण अब स्थूलता आ गई है।

इन वेध्शालाओं के यन्त्रों की स्थूलता का निराकरण करने के लिए वेध् की प्रक्रिया को इस युग में प्रचारित करने के लिए और ज्योतिषशास्त्रा की प्रत्यक्षता को आम लोगों के समक्ष लाने के लिए श्री लाल बहादुर शास्त्रा राष्किट्रय संस्कृत विद्यापीठ नई दिल्ली में वेध्शाला का निर्माण प्रारम्भ किया गया। यह विद्यापीठ का सौभाग्य है, कि इस कार्य के लिए हमें वेध्शालाओं के निर्माण के विशेषज्ञ एवं अध्किरी विद्वान् पं. श्री कल्याण दत्त शर्मा जी की सेवायें प्राप्त हुईं। इन्होंने रात-दिन एक कर ननोयोग से विद्यापीठ की वेध्शाला के यन्त्रों का निर्माण, परीक्षण एवं संशोध्न आदि किया है। इस कार्य में विद्यापीठ के ज्योतिष-विभागाध्यक्ष डॉ. शुकदेव चतुर्वेदी एवं ज्योतिष-विभाग के रीडर डॉ. ओंकारनाथ चतुर्वेदी, पं. श्री शारदानिवासशास्त्रा, वरिष्ठ व्याख्याता पं. श्री रामदेव झा एवं डॉ. प्रेम कुमार शर्मा आदि ने समय-समय पर बड़ी लग्न एवं तत्परता के साथ सहयोग किया है। इस वेध्शाला में निम्नलिखित यन्त्रों का निर्माण हुआ है-

  1. नाडीवलययन्त्रा
  2. याम्योत्तरीयतुरीययन्त्रा
  3. सम्राट्पलभायन्त्रा
  4. शघ्कुयन्त्रा
  5. भारतीयतारामण्डलयन्त्रा
  6. चक्रयन्त्रा
  7. याम्योत्तरध्रातलीयतुरीययन्त्रा
  8. क्रान्तिवृत्तयन्त्रा
  9. तुला-कर्क-मकरराशिवलययन्त्रा
  10. षष्ठांशयन्त्रा

वेधशाला:नाडीवलययन्त्रा

ध्रुव से 60॰ अंश की दूरी पर जो आकाश में वृत्त बनता है, वह नाडीवलयवृत्त व विषुवद्-वृत्त बनता है, वह नाडीवलय आकाश को ठीक-ठीक 2 भागों में विभाजित करता है। अतः यह दक्षिण गोलार्ध् व उत्तर- गोलार्ध् का विभाजक वृत्त होता है। इस वृत्त का व्यास पृथ्वी पर भूमध्य रेखा के नाम से विख्यात है। भूमध्य रेखास्थ नगरों का अक्षांश शून्य होता है। इसका मूल-कारण यह है कि उन नगरों में दक्षिण-ध्रुव व उत्तरी-ध्रुव दोनों क्षितिज पर सटे हुए दिखाई देते हैं, अर्थात् ध्रुवोन्नति शून्य होने से अक्षांश भी शून्य होता है।

ध्रुवोन्नति ही अक्षांश की द्योतक है। विषुद्वृत्त ;नाडीवलयद्ध से ज्यों-त्यों उत्तर व दक्षिण हटा जाता है, त्यों-त्यों उत्तरी-ध्रुव व दक्षिणी-धुरव क्षितिज से ऊपर उठा हुआ प्रतीत होता है। मान लो कोई नगर भूमध्य रेखा, जो नाडीवलय की व्यास रेखा है, उससे उत्तर की ओर 2॰ अंश पर स्थित है, इसका अभिप्राय यह हुआ कि उस नगर के क्षितिज से उत्तरी ध्रुव 2॰ अंश ऊपर उठा हुआ है और दक्षिणी ध्रुव क्षितिज से 2॰ अंश नीचे हटा हुआ होने के कारण दृष्टिगोचर नहीं होता। एवं कोई नगर नाडीवलय व्यास रेखा ;भूमध्य रेखाद्ध से 2॰ अंश दक्षिण हटा हुआ है, तो वहाँ दक्षिणी ध्रुव क्षितिज से 2॰ अंश ऊपर उठा हुआ होता है और उत्तरी ध्रुव क्षितिज से 2॰ अंश नीचे होने के कारण दृष्टिगोचर नहीं होता। इस प्रकार जिस देश में उत्तरी ध्रुव क्षितिज से जितने अंशादि ऊपर उठा हुआ होता है, वही उस देश का उत्तर-अंक्षाश कहलाता है।

दिल्ली में उत्तरी ध्रुव ;28॰ अंश 36’ कलाद्ध क्षितिज से ऊपर उठा हुआ प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है, अतः दिल्ली का 28o/36’ उत्तर-अक्षांश कहलाता है। मारीशस में दक्षिण-ध्रुव क्षितिज से ऊपर उठा हुआ होने के कारण मारीशस का अक्षांश दक्षिण-अक्षांश कहलाता है। शून्य अक्षांश के ध्रातल में स्थित देशों में दोनों ध्रुव दृष्टिगोचर होते हैं, अन्यत्रा एक ही ध्रुव के दर्शन होते हैं। शून्य अक्षांश अर्थात् भूमध्य रेखा पर शून्य अक्षांश होने के कारण चर का अभाव होने से वहाँ प्रतिदिन 12 घण्टे का दिन व 12 घण्टे की रात्रि होती है। अर्थात् दिन व रात्रि का मान बराबर होता है। अन्यत्रा चरोपलब्धि् होने से दिन व रात्रि का मान घटता-बढ़ता रहता है। भूमध्य रेखा के आसन्न कम्पाला, जिना, किसुमू, एल्दोरेट, नुकरो, विक्टोरिया हैं तथा ठीक भूमध्य रेखा पर स्टेनले प्रपात दक्षिण अप्रफीका में हैं। केवल सायन मेषार्क ;21 मार्चद्ध, सायन तुलार्क ;23 सितम्बरद्ध को ही दिन व रात्रिमान बराबर होते है। ;मेषादिगे सायनभागसूर्ये दिनार्जा भा पलभा भवेत्सा।द्ध साक्ष देशों में 21 मार्च व 23 सितम्बर को क्रान्ति शून्य होने के कारण दिन-रात्रिमान बराबर होते हैं। उसी दिन मध्याह्नकाल में शंकु ;12 अंगुल की छाया जितनी अंगुलात्मक होती है, उसको ही पलभा कहते हैं तथा याम्योत्तर ध्रातल में स्थित शंकु द्वारा अक्षांश तुल्य ही नतांश प्राप्त होते हैं। आकाशीय नाडीवलय के ध्रातल में वृत्त बनाने पर पृथ्वी पर नाडीवलय यन्त्रा बन जाता है। आकाशीय स्थानीय अक्षांश तुल्य कोण पर बना हुआ वृत्त ही पृथ्वी पर नाडीवलय वृत्त बनता है।

इस नाडीवलय यन्त्रा पर ग्रह-नक्षत्रों का गोलज्ञान हो जाता है, दक्षिण की तरपफ खड़े होकर नाडीवलय से सटकर आकाश को देखने पर आकाशीय दक्षिण गोल के ग्रह-नक्षत्रादि दृष्टिगोचर होंगे एवं उत्तर की तरपफ नाडीवलय से सटकर आकाश को देखने पर उत्तरगोलीय ग्रह-नक्षत्रादि दृष्टिगोचर होंगे।

गोल-ज्ञान के अतिरिक्त स्थानीय समय ;स्वबंस ज्पउमद्ध का भी ज्ञान हो जाता है। केन्द्रस्थ शंकु की छाया जितने घण्टे, मिनटों पर दिखाई पड़े, वही स्थानीय समय होगा, उसमें स्थानीय स्पष्टान्तर मिनटादि का संस्कार करने पर भारतीय स्टैण्डर्ड समय का ज्ञान हो जाता है। स्थानीय मध्यमान्तर में वेलान्तर का संस्कार करने पर स्पष्टान्तर ज्ञात हो जाता है, जैसे ;21 पफरवरी को यहाँ दिल्ली में नाडीवलय यन्त्रा ने 10 बजकर 30 मिनट समय बतलाया, वह स्थानीय समय ;स्वबंस ज्पउमद्ध है, इसको भारतीय स्टैण्डर्ड समय में जानने हेतु यहाँ के मध्यमान्तर- 21 मि. 8 से. में 21 पफरवरी के वेलान्तर ;-13 मि. 43 से.द्ध का संस्कार करने पर 34 मि. 51 से. स्पष्टान्तर प्राप्त हुआ, इसका विपरीत संस्कार अर्थात् 10 बजकर 30 मि. स्थानीय समय में जोड़ने पर 11 बजकर 04 मिनट 51 सेकेण्ड भारतीय स्टैण्डर्ड समय होगा।द्ध जब सूर्य दक्षिण गोल में होगा तब दक्षिण की ओर बने वृत्त के शंकु की छाया से समय-ज्ञान होगा। उत्तर गोल में सूर्य के रहने पर उत्तर की ओर बने यन्त्रा से समय का ज्ञान होगा। 21 मार्च से 22 सितम्बर तक सूर्य उत्तर गोल में रहता है तथा 23 सितम्बर से 20 मार्च तक दक्षिण गोल में रहता है। सूर्य जिस गोलार्ध् में हो उसके विपरीत दिशा में यन्त्रा के ध्रातल से सटकर देखने पर 6 मास तक सूर्य के दर्शन नहीं होते।

इस यन्त्रा द्वारा स्पष्टान्तर का स्वतः ही ज्ञान हो जाता है। रेडियो से मिली घड़ी के समय का और इस नाडीवलय के स्थानीय समय का अन्तर ही स्पष्टान्तर होता है। इस प्रकार प्रतिदिन स्थानीय समय बतलाकर स्पष्टान्तर का भी प्रतिदिन संकेत मिला रहता है। स्पष्टान्तर में मध्यमान्तर का संस्कार करने पर वेलान्तर का भी ज्ञान हो जाता है तथा स्पष्टान्तर में वेलान्तर का संस्कार करने पर मध्यमान्तर का भी ज्ञान इसी यन्त्रा से हो जाता है।

वेधशाला:नाडीवलययन्त्रा
वेधशाला: याम्योत्तरीयतुरीययन्त्रा

वेधशाला: याम्योत्तरीयतुरीययन्त्रा

परिधि् के चतुर्थ भाग को ही तुरीय यन्त्रा कहते हैं। अथवा आजकल की भाषा में ;डीद्ध का अर्ध्रूप ही तुरीय कहलाता है। इस तुरीय चाप को 60॰ में विभाजित कर भिन्न-भिन्न स्थिति में स्थापित करने पर भिन्न-भिन्न यन्त्रों का निर्माण हो जाता है, इसे मध्याह्नकालीन याम्योत्तरवृत्त के ध्रातल में स्थापित करने पर याम्योत्तरीय तुरीय यन्त्रा बन जाता है। इसको मध्याह्नवृत्त से भी जाना जाता है।

इसका मुख्य कार्य ग्रह-नक्षत्रों का याम्योत्तरलंघन काल बतलाना है तथा उस ग्रह-नक्षत्रा का उस समय खमध्य से कितना नतांश है, यह भी उस समय ही संकेत कर देता है। नतांश के द्वारा उस ग्रह-नक्षत्रा की क्रान्ति का ज्ञान हो जाता है, क्रान्ति द्वारा उदय व अस्त होने का समय, उसका दिनमान, गोलज्ञान, सायनभोगांशदि पदार्थों का ज्ञान हो जाता है। दिन में सूर्य याम्योत्तरलंघन काल सर्वदा सर्वत्रा स्थानीय ध्पघड़ी के अनुसार दिन के 12 बजे ही होता है। दिन के 12 बजे यन्त्रास्थ शंकु की छाया जितने अंशादि पर दृष्टिगोचर हो, वे अंशादि उस समय के अर्थात् स्पष्ट मध्याह्नकाल के नतांश होते हैं। ‘‘क्रान्त्यक्षजसंस्कृतिर्नतांशाः’’ इस सिधान्त के अनुसार नतांश वास्तव में अक्षांश में क्रान्ति के योग-वियोगरूप ही होते हैं। जब सूर्य दक्षिण गोल में रहता है, अर्थात् 23 सितम्बर से 20 मार्च तक, तब अक्षांश में क्रान्ति के योगरूप नतांश होते हैं। सूर्य के उत्तर गोल स्थित होने पर अक्षांश में क्रान्ति के वियोगरूप में नतांश जाने जाते हैं। अक्षांश तो स्थिर पदार्थ हैऋ किन्तु क्रान्ति का मान प्रतिदिन घटता-बढ़ता रहता है। इस कारण नतांशमान भी प्रतिदिन घटता-बढ़ता रहता है। 21 मार्च व 23 सितम्बर को क्रान्तिमान शून्य होने से नतांश का मान अक्षांश तुल्य ही होता है। क्रान्ति का अभाव होने चर-पलों का भी अभाव होता है। इस कारण उस दिन दिन व रात्रिमान सर्वत्रा सर्वदा समान होता है।

21 मार्च के बाद प्रतिदिन शंकु की छाया का मान 21 मार्च की अपेक्षा कम होता चला जाता है। ;दिल्ली में 21 माच्र को शंकु की छाया इस यन्त्रा पर 280 अंश 36’ कला पर गिरती है, जो यहाँ का अक्षांशमान हैद्ध तदुपरान्त प्रतिदिन छाया का मान न्यून होते-होते 22 जून को 50 अंश 11 कला पर ही छाया दृष्टिगोचर होगी, अतः सबसे कम नतांश 22 जून को होंगे और दिनमान इस दिन सबसे अध्कि होगा, अर्थात् सम्पूर्ण वर्ष में प्रतिदिन दिल्ली में जो दिनमान होता है, उसमें इस दिन का माप सबसे अध्कि होगा। 22 जून के बाद इस नतांश की क्रमशः वृदि होकर 23 सितम्बर को स्पष्ट मध्याह्नकाल में शंकु की छाया 280 अंश 36’ कला पर ही दृष्टिगोचर होगी और दिन व रात्रिमान इस दिन बराबर होंगे तथा क्रान्ति शून्य होगी एवं इस ही दिन सायन तुला राशि पर सूर्य का संक्रमण होगा। तदुपरान्त प्रतिदिन स्पष्ट मध्याह्नकाल में शंकु की छाया क्रमशः बढ़ते रहने से नतांश की संख्या बढ़ते-बढ़ते 22 दिसम्बर को शंकुछाया 420 अंश 05’ कला पर दिखाई देगी और इस दिन दिल्ली का दिनमान वर्ष भर में सबसे छोटा होगा एवं क्रान्ति का मान परमक्रान्यंश तुल्य होगा। उपर्युक्त विवेचन से यह सिद्ध हो गया कि 23 सितम्बर के बाद नतांश की संख्या अक्षांश से अध्कि होती है और 21 मार्च से नतांश की संख्या प्रतिदिन दिल्ली के अक्षांश 280 अंश 36’ कला से कम होती है। 21 मार्च के बाद नतांश की संख्या जितनी कम होगी, वह ही प्रतिदिन उत्तराक्रान्ति का मान होगा। इस प्रकार के प्रतिदिन के क्रान्त्यंश मान को शंकुतलस्थ लम्बरेखा तक के मान में जोड़ते चले जाने से प्रतिदिन दिल्ली के अक्षांशमान का ज्ञान होता रहता है।

वेधशाला: सम्राट्-पलभा-यन्त्रा

इस यन्त्रा का निर्माण विषुवद्वृत्तीय ध्रातल में होता है। अभीष्ट स्थान में विषुवद्दिन के स्पष्ट मध्याह्नकाल में अभीष्ट माप के शंकु की जो छाया उपलब्ध् होती है। उसका ही नाम पलभा होता है। विषुवद् दिन आध्निक काल में 21 मार्च व 23सितम्बर को होता है। इस दिन ही क्रमशः सायन मेष व सायन तुला राशि में सूर्य का संक्रमण होता है, तथा इस दिन ही विषुवद्वृत्त पर सूर्य का भ्रमण होने से प्रत्येक स्थान पर दिन और रात्रि का मान बराबर होता है। पलभा भुज, लम्बज्या कोटि, त्रिज्या कर्ण, यह अक्षक्षेत्रा सभी सिद्धन्तज्ञ जानते हैं। इस प्रकार अभीष्ट साक्ष देशों में 21 मार्च व 23 सितम्बर को स्पष्ट मध्याह्नकाल में अभीष्ट माप के शंकु की छाया का माप लेकर उसे द्वादशांगुल शंकु के माप में परिवर्तित करने पर स्व-स्वस्थानीय पलभा का ज्ञान कर लेते हैं। इस सम्राट-पलभा-यन्त्रा में तो तिरछी रेखा कर्णात्मक है, वह पलकर्ण व अक्षकर्ण की ही द्योतक है, ;जैसे दिल्ली में यह कर्ण रेखा 280 अंश 36’ कला की अक्षज्या का कर्ण हैद्ध, इसी प्रकार प्रत्येक देश में यह कर्ण रेखा स्वकीय अक्षज्या की कर्ण रेखा के नाम से व्यवहार में लाई जाती है। निरक्ष खमध्य और साक्ष खमध्यों का अन्तर अक्षांश तुल्य होता है, यह सर्वविदित है। अतः अक्षकोणतुल्य दूरी पर बना हुआ वृत्त ही पृथ्वी पर विषुवद्वृत्त का ध्रातल बन जाता है। विषुवद्वृत्त व तत्समानान्तर अहोरात्रा वृत्तों में कालगणना घटड्ढात्मक रूप में हो जाने से विषुवद्वृत्त के ध्रातल पर बने वृत्त पर भी घटड्ढात्मक व होरात्मक कालसूचक यन्त्रा है। इसके द्वारा स्थानीय समय ;ध्पघड़ी का समयद्ध ज्ञात होता है।

कर्ण शंकु के दोनों ओर 600, 600अंश के चाप बने हुये हैं। दोनों ओर के चाप घण्टे मिनटादि में विभाजित किये हुए हैं। प्रातःकाल सूर्य के उदय होने के पश्चात् इस यन्त्रा पर बने पश्चिम भाग के चाप पर अति मन्द गति से छाया पूर्व की ओर खिसकती हुई दृष्टिगोचर होती है, उसके आधर पर ही स्थानीय समय का ज्ञान होता रहता है। पश्चिम के पार्श्व भाग में बने चाप पर 6 बजे प्रातः से लेकर 12 बजे स्पष्ट मध्याह्न तक की गणना की जाती है। 12 बजे के बाद सूर्य पश्चिम कपाल में प्रवेश करता है, तब छाया पूर्व कपाल में धीरे-धीरे खिसकती हुई दृष्टिगोचर होती है। ठीक स्पष्ट मध्याह्नकाल के बाद लगभग 2 मिनट तक छाया लुप्त रहती है, उसके बाद पूर्व कपाल में दिखने लगती है, इस 2 मिनट के आसन्न काल को छाया करीब 3 घण्टे में थोड़ा-थोड़ा करके पूरा कर लेती है। पूर्व कपाल में 1 बजे से सायं 6 बजे तक छाया द्वारा समय प्राप्त होता रहता है। ग्रीष्मतु में 6 बजे के बाद तक भी सूर्य-दर्शन होता रहता है, अतः दोनों पार्श्वों में 150,150 अंश का चाप बढ़ाने की भी प्रक्रिया प्रचलित है, जिससे प्रातः 5 बजे से सायं 7 बजे तक का स्थानीय समय ज्ञात होता रहता है। आजकल सर्वत्रा भारतीय स्टैण्डर्ड समय का उपयोग होता है तथा सभी यान्त्रिक घड़ियाँ जो गरीब व अमीर दोनों प्रकार के व्यक्तियों के पास सर्वत्रा उपलब्ध् होती हैं, उन घड़ियों के समय से ताल-मेल बिठाने हेतु इन ध्पघड़ियों में स्पष्टान्तर का संस्कार किया जाता है। स्पष्टान्तरसंस्कृत स्थानीय समय ;धपघड़ी का समयद्ध भारतीय स्टैण्डर्ड समय में बदल जाता है। स्पष्टान्तर संस्कार मध्यमान्तर और वेलान्तर के योगवियोगादि से प्राप्त होता है, जो प्रतिवर्ष प्रतिदिन प्रत्येक स्थान पर एक-सा ही होता है, ;जैसे दिल्ली में 7 मार्च को 33 मिनट प्रणात्मक स्पष्टान्तर हैऋ तो प्रतिवर्ष 7 मार्च को प्रणात्मक 33 मिनट ही होगाद्ध इसी प्रकार प्रत्येक स्थान पर अपने-अपने मध्यमान्तर के अनुसार प्रतिवर्ष प्रतिदिन एक-सा ही स्पष्टान्तर होता है।

वेधशाला: सम्राट्-पलभा-यन्त्रा
वेधशाला-शघ्कुयन्त्रा

वेधशाला-शघ्कुयन्त्रा

इस यन्त्रा को सिद्धान्तज्ञ ज्योतिर्विद् विद्वानों ने अत्यध्कि महत्त्व देकर इसका उपयोग किया है। इसका ज्वलन्त उदाहरण सिान्त-ग्रन्थों का उदाहरण सिद्धान्त-ग्रन्थों का त्रिप्रश्नाध्किर है। इस अध्याय में दिक् देश व काल इन 3 पदार्थों का वर्णन किया है, इसलिए इसका नाम त्रिप्रश्नाध्याय रखा गया है। इन तीनों प्रश्नों का उत्तर केवल शंकुयन्त्रा से ही दिया गया है। सिद्धान्त -ग्रन्थों के यन्त्राध्याय में गोल, नाडीवलय, चक्र, चापतुर्य, शंकु, पफलक, यष्टि, ध्रुवयष्टि, धी आदि यन्त्रों का वर्णन है, जिसमें से केवल शंकुयन्त्रा के आधर पर ही त्रिप्रश्नाध्याय लिखा गया है। इस अध्याय में पलभा, अक्षज्या, लम्बज्या, उन्नतांशज्या, नतांशकोटिज्या, छाया, छायाकर्ण, अग्रा, नतांश, नतकाल, ठीक-ठीक पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशा-बिन्दुओं का ज्ञान आदि केवल शंकुयन्त्रा से ही किया गया है। आधुनिक युग में षष्ठड्ढंश व दूरदर्शक आदि आधुनिक यन्त्रों से उपर्युक्त पदार्थों का सूक्ष्मता से ज्ञान कर लिया जाता है। प्राचीन काल में इतने सूक्ष्म यन्त्रों के अभाव में स्थूल मान में जो ज्ञान शंकु आदि यन्त्रों से करने की प्रक्रिया ज्योतिर्विद् विद्वानों ने अपनायी है, वह उनकी कुशलता की द्योतक है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। प्राचीन यन्त्रों द्वारा प्राप्त मान आधुनिक यन्त्रों की अपेक्षा स्थूल तो है, किन्तु अध्कि आसन्न है। आधुनिक युग में इस स्थूल मान को लम्बन, किरण-वक्रीभवन, अक्षविचलन, कालसमीकरण, आदि संस्कारों से संस्कृत कर अर्वाचीन यन्त्रों के द्वारा प्राप्त मान के समकक्ष बना लिया जाता है। एक ठोस पदार्थ का लम्बरूप दण्ड, जिसका अग्रिम भाग अध्कि से अध्कि नुकीला हो, उस दण्ड को समतल भूमि में गाड़ दिया जाता है। उसकी छाया से सब काम लिया जाता है। इसी को शंकुयन्त्रा कहा गया है। समतल भूमि जानने हेतु सबसे सुगम रीति यह है कि तल के किनारे चारों ओर गीली मिट्टी की दीवाल बनाकर उसमें एक या डेढ़ अंगुल गहरा जल भरकर किसी सीधी सींक को खड़ी करके भिन्न-भिन्न स्थलों को देखने पर सब जगह जल की गहराई एक ही हो तो समझना चाहिए कि स्थल समतल है। आजकल समतल का ज्ञान स्पिरिट लेबल द्वारा सुगमता से कर लिया जाता है।

दिशा ज्ञान

काल ज्ञान।

वेधशाला: भारतीयतारामण्डल

यह यन्त्रा गोलाकार रूप में बना हुआ है। इस यन्त्रा द्वारा दिशा, दिगंश, अग्रा, उन्नतांश, नतांश, अक्षांश, क्रान्ति, ग्रह-नक्षत्रों के दक्षिणगोलार् व उत्तरगोलार् की स्थिति, सायनभोगांश, राशिसंक्रमण, सूर्योदय, तुल्य अहोरात्रामान, पा, पलकर्ण, कालज्ञान, सबसे बड़ा दिन, सबसे छोटा दिन, सूर्यास्त, दिनमान, अयन, ध्रुवदर्शन आदि पदार्थों का ज्ञान होता है।

दिगंश-

दिल्ली के क्षितीज ध्रातल पर 360 अंश अंकित हैं, अभीष्ट काल में शंकु की छाया जहाँ दृष्टिगोचर होवे, वहाँ शंकु में बँधे हुए डोरे को लगाने पर वह डोरा क्षितिज में जहाँ लगे, उस अंशादि की उत्तर बिन्दु से गणना करने पर दिगंश ज्ञात होते हैं।

दिशा

क्षितिज पर पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण बिन्दु ही दिशा के परिचायक हैं।

अग्रा, पलभा-

अग्रा की जानकारी के लिये सर्वप्रथम विषुवद्भाग्रगा रेखा का ज्ञान करना परमावश्यक है। विषवद्भाग्रगा रेखा ही पलभा की द्योतक है। यह पलभा सायनमेषादि व सायनतुलादि में सूर्य के प्रवेश करने पर ज्ञात होती है। 21 मार्च व 23 सितम्बर को सूर्य क्रमशः सायनमेष व सायनतुला राशि में प्रवेश करता है, इस दिन स्पष्ट मध्याह्नकाल में शंकु की छाया का माप ही पलभा नाम से जाना जाता है, इस शंकु की छाया के अग्रभाग से सटाकर वृत्तपालीतक रेखा खींचने पर विषुवद्भाग्रगा रेखा बन जाती है। सायन मेष-तुलादि पर अर्थात् 21 मार्च व 23 सितम्अर को अग्रा का मन शून्य रहता है, पुनः प्रतिदिन प्रातःकाल की शंकु की छाया बढ़ती रहती है, उस बढ़ाव और विषुवद्भाग्रगा रेखा का अन्तर ही अग्रा नाम से व्यवहृत किया है, अर्थात् प्रातःकालीन शंकु की छाया के और विषुवद्भाग्रगा रेखा के मध्य जो अन्तर होता है, उसे अग्रा कहते हैं।

वेधशाला: भारतीयतारामण्डल
वेधशाला: चक्रयन्त्रा

वेधशाला: चक्रयन्त्रा

ध्रुवयष्टिका पर 360 अंश से अंकित परिधि् की स्थापना से चक्रयन्त्रा की आकृति बन जाती है। दिन में यथेष्टकाल में सूर्य की क्रान्ति का प्रतिदिन ज्ञान होता है तथा रात्रि में अभीष्ट ग्रह-नक्षत्रों की क्रान्ति का ज्ञान होता है। केन्द्रबिन्दुस्थ नलिका द्वारा अभीष्ट ग्रह-नक्षत्रों को देखने पर नलिका चक्रयन्त्रा की परिधि् पर जितने अंशादि पर लगे उतनी ही अभीष्ट ग्रह-नक्षत्रों की क्रान्ति होती है। व्यासार्ध् रेखा से नलिका दक्षिण की ओर लगे तो उत्तरा क्रान्ति, तथा उत्तर की ओर नलिका परिधि् पर लगे तो दक्षिणा क्रान्ति समझनी चाहिए। रात्रि में कभी-कभी नक्षत्रा पहचानने में भ्रम हो जाता है, अतः उस भ्रम के निवारणार्थ इस चक्रयन्त्रा द्वारा क्रान्ति ज्ञात कर ली जाती है।

वेधशाला: याम्योत्तरध्रातलीयतुरीययन्त्रा

इस यन्त्रा पर दिन में स्पष्ट मध्याह्नकालानन्तर शंकु की छाया से नतांश ज्ञात कर लिये जाते हैं तथा रात्रि में अभीष्ट ग्रह व नक्षत्रा के याम्योत्तरलंघनकाल का ज्ञान कर उसी समय उसके नतांश ज्ञात कर लिये जाते हैं। नतांशों द्वारा याम्योत्तरीय चाप-यन्त्रा की विधि् के अनुसार अन्य सभी पदार्थों का ज्ञान हो जाता है।

वेधशाला: याम्योत्तरध्रातलीयतुरीययन्त्रा
वेधशाला: क्रान्तिवृत्तयन्त्रा

वेधशाला: क्रान्तिवृत्तयन्त्रा

याम्योत्तर के ध्रातल में सछिद्रनलिका स्थापित कर देने से यह यन्त्रा बन जाता है। इसमें स्पष्ट मध्याह्नकाल में नलिका के छिद्र में से गोलाकार प्रकाश जिने अंशादि पर पड़े, उतनी ही सूर्यादि ग्रहों की क्रान्ति समझनी चाहिए। क्रान्ति से नतांश ज्ञात कर चापयन्त्रावत् सब पदार्थों का ज्ञान हो जाता है।

वेधशाला: तुला-कर्क-मकरराशिवलययन्त्रा

ये 3 यन्त्रा परमोपयोगी हैं। इनसे ग्रह का सायन भोगांशादि प्राप्त हो जाता है। सायनभोगांशादि में अयनांश घटाने पर दृक्पक्षीय पंचांगों के निरयन भोगांशादि प्राप्त हो जाते हैं, जो पंचांग दृक्पक्षीय मतानुसार बने हुए नहीं हैं, उनमें कितनी अशु है, यह भी इन यन्त्रों द्वारा निर्णय हो जाता है। जब सायनकर्कारम्भबिन्दु याम्योत्तरलंघन करेगा, उस समय कर्कराशिवलय पर, जब सायन मकराम्भबिन्दु याम्योत्तरलंघन करेगा, तब मकरराशिवलय पर सूर्य का वेध् करने पर अर्थात्उस समय सूर्य जितने अंशादि पर होगा, उतना ही सायन सूर्य स्पष्ट होगा, उसमें से अयनांश घटाने पर दृक्पक्षीय निरयन सूर्यस्पष्ट ज्ञात हो जायेगा। इस प्रकार जब इन राशियों के प्रारम्भिक बिन्दु याम्योत्तरलंघन करेंगे, तब आकाश में दृष्ट किसी भी ग्रह का वेध् करने पर उस ग्रह का सायनभोगांश प्राप्त हो जाएगा। रात्रि में ग्रहों का प्रकाश ;केवल चन्द्रमा को छोड़कारद्ध तो पड़ता नहीं है, इसलिये ठीक याम्योत्तरलंघनकाल में यन्त्रा के दोनों पार्श्व में बने चाप भाग में से जिध्र के चाप भाग पर ग्रह दृष्टिगोचर हो, उस पर अपनी दृष्टि इस प्रकार सटानी चाहिए, जिससे ग्रह कर्णाग्र पर सटा हुआ दिखे अर्थात् दृष्टिकर्णाग्र और ग्रह जहाँ से एक सूत्राब दिखायी देने लगें, उस दृष्टिबिन्दु पर चाप में जितने अंशादि होंगे, वे ही उस ग्रह के सामने भेगांशादि होंगे। अयनांशहीन करने पर दृक्पक्षीय निरयन ग्रह के स्पष्ट राश्यादिक प्राप्त हो जायेंगे। सायन मेष-दशमारम्भकालज्ञानार्थ संलग्न सारणी का उपयोग करने पर सुगमता से आरम्भ काल ज्ञात हो जाता है। इस सायन मेष-दशमारम्भकाल की गणित संलग्न सारणी द्वारा सम्राट-पलभायन्त्रा के विवरण में दी जा चुकी है। सायन मेष-दशमारम्भकाल में 5 घं. 46 मि. जोड़ने पर सायन कर्क-दशमारम्भकाल एवं 17 घं. 57 मि. जोड़ने पर सायन मकर-दशमारम्भकाल ज्ञात हो जाता है तथा 11 घण्टे 58 मिनट जोड़ने पर सायन तुलादशामारम्भकाल ज्ञात होता है। इस प्रकार ये 3 यन्त्रा अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण हैं।

वेधशाला: तुला-कर्क-मकरराशिवलययन्त्रा

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